
शुद्ध चौपाई- पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।
इसका विरोध इतना अधिक किया जाता है कि वामपंथियों, छद्म नारीवादियों, हिन्दू विरोधियों व भ्रमित हिन्दुओं और कुछ नकारात्मक विचारधारा के लोगो द्वारा "पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।" नामक चौपाई को तोड़ मरोड़ कर-
"पूजहि बिप्र सकल गुण हीना। शूद्र न पूजहु वेद प्रवीणा।। और
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न पूजहु वेद प्रबीना।। और
रामचरितमानस की चौपाई "पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।" की समीक्षा:-
रामचरितमानस की रचना कब हुई :-
रामचरितमानस पर विवाद :-
अब बात करते हैं, चौपाई "पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना" की समीक्षा पर-
आवत पंथ कबंध निपाता। तेहिं सब कही साप कै बाता।।
आइये इसके सही अर्थ को विस्तार से समझने का प्रयत्न करते हैं-
चूंकि हर चौपाई का संबंध अपनी अगली व पिछली चौपाई से रहता है । श्रीरामचरितमानस की किसी भी चौपाई का भाव समझने के लिए उसके ऊपर नीचे की चौपाई को भी देखना/समझना चाहिए तथा सम्बन्धित चौपाई किस प्रसंग में और क्यों आया है; यह भी जानना नितांत आवश्यक है।
इस चौपाई (पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।) का संबंध भी पिछली चौपाई व राक्षस कबंध से है । हालांकि रामचरितमानस में कबंध राक्षस के बारे में कम विवरण है, अपितु महर्षि वाल्मीकि जी कृत रामायण में विस्तृत विवरण है।
दअरसल कबंध राक्षस द्वारा ऋषियों को परेशान करने के कारण पूर्व जन्म में दुर्वासा ऋषि ने क्रोधित होकर श्राप दिया था । इसलिए यहाँ कबंध राक्षस श्राप व ऋषि दुर्वासा के क्रोध के कारण प्रभु श्री राम से ऋषि दुर्वासा के बारे में बता रहा है।
कबंध राक्षस श्री राम चन्द्र जी से कह रहा है कि मैं इस राक्षस शरीर से पहले गन्धर्व था, लेकिन एक गलती के कारण मुझे दुर्वासा ऋषि ने श्राप देकर राक्षस बना दिया था, जो कि आज आपके दर्शन से दूर हो गया।
तब श्री राम चन्द्र जी कह रहे हैं कि, हे गन्धर्व ! मैं तुमसे कहता हूॅं, सनो- मुझे ब्रह्म कुल द्रोही नहीं सुहाता।
सापत ताड़त परुष कहंता। बिप्र पूज्य अस गावहिं संता।।, इस चौपाई से अभिप्राय है कि, श्री राम चन्द्र जी ने कहा कि सापत अर्थात् श्राप देता हुआ, ताड़त अर्थात् डांटता-फटकारता हुआ और परूष अर्थात् कठोर वचन कहता हुआ ब्राह्मण भी पूज्य है; ऐसा संत कहते हैं।
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।। , इस चौपाई का प्रत्येक शब्द गंभीर विचार के योग्य है, और जिनको हिन्दू धर्म का पूर्ण रूप से ज्ञान नहीं है, वे लोग इस चौपाई का गलत अर्थ निकालते हैं।
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।; इन चौपाइयों में बिप्र शब्द का जो प्रयोग हुआ है, वह उस ब्राह्मण के लिए प्रयोग हुआ है, जो तपस्वी है। और सील गुन शब्द का जो प्रयोग हुआ है, उसका तात्पर्य शील अर्थात् मृदुलता या कोमलता वाले गुण से है। अर्थात् यदि तपस्वी ब्राह्मण का स्वभाव कठोर है या उसमें कोमलता नहीं है तो भी वह पूजनीय है।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।; इस भाग का सही अर्थ निकालने के लिए आपको इसको दो भागों में तोड़ना पड़ेगा ! 'सूद्र न गुन' अर्थात् इन्हें शूद्र (सेवा कर्म करने वाला, तपस्या से हीन) मत समझ; 'गन ग्यान प्रबीना' अर्थात् इन्हें ज्ञान में प्रवीण मान या ज्ञानी समझ। 'गन' का अर्थ- गीनो या मानो। 'न गुन' का अर्थ- मत समझ।
इस वाक्य के पीछे श्री रामचन्द्र जी का अभिप्राय था, कि दुर्वासा जी के अवगुण (क्रोध) तो तू देख रहा है, लेकिन इनके जीवन में जो तप, त्याग, गुण और विशेषताएँ हैं; उनके ऊपर तुम्हारी दृष्टि नहीं जाती।
अर्थात् दुर्वासा जी जैसा बिप्र भी पूजनीय है, क्योंकि संत जन भी उनकी महिमा को भलीभाँति जानते हैं कि दुर्वासा जी रुद्रांश हैं। 'क्षणे रुष्टा: क्षणे तुष्टा: रुष्टा तुष्टा क्षणे-क्षणे' जिनका स्वभाव है, लेकिन उनमें तपोबल व ज्ञान भी तो है । जिसमें 'सील गुन' अर्थात् शील वाला गुण (कोमलता) नहीं है; तो क्या इन्हें शूद्र मान लिया जाए ? नहीं..! इनमें कोमलता नहीं है तो क्या हुआ, ये ज्ञान में तो प्रवीण हैं।
श्रीरामजी कबंध से मिलने के पश्चात सीधे माँ शबरी (जो कि गैर ब्राह्मण, या भील जाति की हैं) के आश्रम पहुँचते है और माँ शबरी के प्रति प्रेम व आदर तो सर्वजगत को विदित है। श्रीराम चन्द्र जी खुद शबरी के हाथों से दिये गये कन्द-मूल, फल, बेर आदि बहुत प्रेम से खाते हैं और शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हैं।
अब आपको यह भी समझ लेना चाहिये कि हिन्दू धर्म के अनुसार बिप्र, द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) और शूद्र कौन है ?
हिन्दू धर्म के अनुसार, समाज को सुचारु रूप से कार्यशील रखने के लिए वर्ण व्यवस्था का निर्माण ईश्वर द्वारा सृष्टी के आरम्भ के समय ही किया गया। हिन्दू धर्म के अनुसार, जाति का निर्धारण जन्म के द्वारा भी होता है और कर्म द्वारा भी; हिन्दू धर्म यह भी कहता है कि कोई मनुष्य कर्म करके श्रेष्ठ जाति की पदवी पा सकता है या अपनी जाति की पदवी खो कर अधम मनुष्य का दर्जा प्राप्त कर सकता है।
ब्राह्मण जाति में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण तब तक नहीं माना जाएगा, जब तक की उसका अन्य संस्कार और उपनयन संस्कार न हुआ हो, और वह उपनयन संस्कार के होने पर भी ब्राह्मणोचित कर्म न करता हो। यदि वह उपनयन संस्कार से युक्त है और ब्राह्मणोचित कर्म (प्रतिदिन तीनों समय संध्या वंदन, सदाचारी, शाकाहारी, भगवत प्रेमी, वेद पठन-पाठन, तपस्या, ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति का प्रयास आदि कर्म) कर रहा है, तभी वह ब्राह्मण कहलाता है, वरना हिन्दू धर्म उसे ब्राह्मण नहीं मानता। जिस दिन ब्राह्मण जाति में जन्मा व्यक्ति ब्राह्मणोचित कर्म को छोड़ देगा, उस दिन से वह धर्म के अनुसार अधम मनुष्य या अपने कर्म के अनुसार जाति का दर्जा प्राप्त कर लेता है।
इसी प्रकार से क्षत्रिय जाति या कुल में जन्म लेने वाला, तब तक क्षत्रिय नहीं कहलाएगा, जब तक कि उसका अन्य संस्कारों के साथ उपनयन संस्कार न हुआ हो, और उपनयन संस्कार होने के बाद भी वह क्षत्रियोचित कर्म न करता हो।
इसी प्रकार से वैश्य जाति या कुल में जन्म लेने वाला, तब तक वैश्य नहीं कहलाएगा, जब तक कि उसका अन्य संस्कारों के साथ उपनयन संस्कार न हुआ हो, और उपनयन संस्कार होने के बाद भी वह वैश्योचित कर्म न करता हो।
केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य के जाति में जन्म ले लेने से वह उस जाति का नहीं हो जाएगा, जब तक की वह उपनयन संस्कार के साथ अपने कर्म को न करता हो।
कुछ अति उत्साही ब्राह्मण लोगों द्वारा भी आजकल इस चौपाई का सहारा लेकर स्वयं का महिमा मंडन किया जाता है, जैसे कि अपराध करने पर भी ब्राह्मण महान है , जबकि वे इसका सही अर्थ नहीं जानते तथा वे खुद अपना शास्त्रोक्त कर्म छोड़कर ब्राह्मणत्व से गिर चुके हैं, क्योंकि वे लोग उपनयन संस्कार से हीन होकर और कुछ लोग उपनयन संस्कार के साथ ही मांस मदिरा का सेवन कर रहे हैं और विलासी हो गये हैं और सनातन धर्म जिन कर्मों को करने से मना कर रहा है, वही कर्म कर रहे हैं ।
यही अनावश्यक गर्व की स्थिति भ्रष्ट क्षत्रियों व वैश्यों में भी देखने को मिलती है।
खर, दूषण, कुम्भकर्ण व स्वयं रावण भी ब्राह्मण ही था, जिसका प्रभु श्री राम ने वध किया। प्राचीन समय में जिस वर्ग के व्यक्ति ने भी गलत कर्म किया, उसको दंड मिला। ऋषि मांडव्य को राजा ने चोर समझकर सूली पर चढ़ा दिया था, जबकि राजा जानते थे कि यह ब्राह्मण हैं। अपराधी अपराधी होता है, भले वह कोई भी हो।
अब आपको यह भी समझ लेना चाहिये कि हिन्दू धर्म के अनुसार शूद्र कौन है ?
बहुत से ऐसे ब्राह्मण हैं जो आज दलित हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं या अब वह बौद्ध हैं। बहुत से ऐसे दलित हैं जो आज ब्राह्मण समाज का हिस्सा हैं। अब कुछ वर्षों से ऊंची जाति के लोगों को सवर्ण कहा जाने लगा हैं। यह सवर्ण नाम भी हिन्दू धर्म ने नहीं दिया बल्कि कुटिल राजनैतिक लोगों ने दिया।
ब्राह्मण होना बहुत बड़ी बात नहीं है, क्योंकि हिंदू धर्म में ब्राह्मण के जो कर्म बतलाए गए हैं वह बहुत ही कठिन है। आज भले ही ब्राह्मण उन कर्मों को न करता हो, ब्राह्मण के कर्मों में सुबह दोपहर शाम संध्या वंदन करना व मंत्रों को जागृत करना इत्यादि प्रमुख है, जो कि बहुत ही कठिन कार्य होता है।
और शूद्र होना बहुत दुख की बात नहीं है, क्योंकि शूद्र को हिंदू धर्म में बहुत ही कम और आसान कर्म करने के लिए बतलाए गए हैं। इसी प्रकार क्षत्रिय धर्म और वैश्य धर्म भी अनुपम है।
भगवान का भक्त, चाहे वह किसी भी वर्ण या जाति का क्यों न हो, भगवान का परम प्रिय है, समाज में सम्माननीय है और वह भगवान को प्राप्त होता है।
अब आपको यह भी समझ लेना चाहिये कि हिन्दू धर्म के अनुसार पूजनीय कौन है ?
हिन्दू धर्म के अनुसार- माता-पिता, गुरुजन, ईश्वर, देवी - देवता, ऋषि - महात्मा (चाहे वे किसी भी जाति के हों), गाय-बैल, पर्वत, नदियाँ, वनस्पतियां, और जो व्यक्ति शास्त्रोक्त व धर्मोचित पवित्र श्रेष्ठ कर्म करता है तथा हिन्दू धर्म शास्त्रों में जिन्हें - जिन्हें पूजनीय बताया गया है, वे सब पूजनीय हैं।
समाज में अनेक लोग बुरी व भ्रष्ट मानसिकता वाले भी होते हैं, जो अपनी अपनी मानसिकता के अनुसार गलत, भ्रष्ट व न पूजने योग्य लोगों को भी पूजते हैं।
हमारे धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि जो ब्राह्मण अपने ब्राह्मणत्व तो से गिर गया है, वह शूद्र के समान है अतः जो ब्राह्मण शूद्र के समान हो गए हैं, तामसी कर्म कर रहे हैं, तामसी आहार-विहार व विचार वाले हो गए हैं, वह तो वास्तव में पूजनीय नहीं रह गए हैं। लेकिन जो ब्राह्मण, उचित कर्म कर रहे हैं, तामसी प्रकृति के नहीं हैं, वह पूजनीय हैं। इसी प्रकार शूद्र भी यदि सात्विक प्रकृति का है, आहार-विहार सात्विक है, विचार उत्तम है, धर्म शास्त्र के अनुकूल कार्य कर रहा है, तो वह भी पूजनीय है- जैसे संत रविदास जी।

2 टिप्पणियाँ
Very Nice ! Jai shree Ram ! I am proud to be Hindu !
जवाब देंहटाएंबहुत ज्ञानवर्धक, परंतु इसके अनुरूप रामचरितमानस के खड़ी बोली में अनुवाद को सही करने की महती आवश्यकता है। जिस प्रकार आपने ऑडियो डाला है,उसी प्रकार आपके द्वारा यूट्यूब पर वीडियो भी डाला जाए तो इसकी पहुंच अधिक लोगों तक हो सकती है।
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